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श्री कृषण दूजो न कदापि युगे -युगे

LOK SAMWAD
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भारतीय उपमहाद्वीप के हजारो साल की सभ्यता -संस्कृति ,साहित्य -कला , धर्म -कर्म और नानाविध लोकविधाओं के “स्मृति- सागर” मंथन से जो रत्न मानव जाति को प्राप्त हुए ,उनमे जिन दो नायक रत्नों को सर्वोपरि स्थान मिला वह हैं राम और कृषण । श्री राम यदि भारतीय लोकजीवन के ताने -बाने के सबल रेशे और उसकी मर्यादा हैं तो उससे निर्मित लोकमन की भावना के रूप,रस और रंग से सरोबर अभिव्यक्ति के चितेरे श्री कृषण हैं। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व पर आज से और मुझ से पहले असंख्य ऋषियों ,संतो ,भक्तो विद्वत जानो और मनीषियों ने जी भर कर लिखा है। उन पर हम जैसे साधारण जन के लिए कुछ लिख पाना एक चमत्कार ही है। श्री कृषण जन्माष्टमी पर जागरण -जंक्शन का आमंत्रण एक प्रलोभन ही है जिसके वशीभूत शब्द अंकन किये जा रहे हैं। श्री कृषण के जितने भी रूप लोकस्मृति में बसें हैं उन में से हर एक पर अनवरत लिखा जा सकता है। पर मुझे वें काल खंड के उस अन्धकार में खड़े उस सुदार्श्नीय नायक के रूप में दिखाई पड़ते हैं जो भाग्य के अभिशाप को कर्म से तोड़ने ,जीवन की नीरसता ,नीरवता को प्रेम ,संगीत ,नृत्य और लोकरंजन के उत्सव से भर देने को मशगूल है। अपने और वह कार्य आज भी जारी है। मुझे वह निर्धनता के चक्र को तोड़ने मथुरा से द्वारका जा बसने और समुद्र व्यापार के जरिय धन- एश्वर्य के बल पर भारतीय राजनीति के धुरन्धरों को ललकारते नज़र आते हैं। वें मुझे विदेश व्यापार और खुली अर्थव्यवस्था के प्रणेता नज़र आते हैं। इस समृधि को उन्होंने द्वारका तक सिमित नहीं रखा ,उसका विस्तार जम्बुद्विप के पूर्वी सिरे पुरी तक किया जहां वें स्वयं बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ प्रतिष्ठित हुए। यहाँ से पूर्वी देशों के साथ व्यापार हुआ। समृधि और संस्कृतियों का आदान-प्रदान हुआ। द्वारका ,पुरी और मथुरा सहित बड़ा भारतीय भू -भाग कृषणमय हो चुका था। समृद्ध साम्राज्य स्थापित करलेने के बावजूद वे उसके राजा नहीं हैं ,वें अपने निर्धन बाल सखा को नहीं भूले। यह उनके उददात चरित्र की उदारता है।यहाँ श्री कृष्ण मुझे आज के कारपोरेट सेक्टर के सोशियल रिस्पोंसबिलिटी को अंजाम देते दिखाई पड़ते हैं। वें काल यवन से लड़े नहीं रणछोड़ कहलाना पसंद किया। लड़ते तो विनाश अवश्यम्भावी था।बड़े यत्न से प्राप्त रीद्धियों -सिद्धियों बचाए रखना कही ज्यादा जरुरी था। परन्तु जब सत्य के पक्ष में लड़े तो महाभारत रचा और युद्ध की विभीषिका और विनाश की चिंता नहीं की ,स्वयम का राज्य ,यदुवंशियों का राज्य भी छिन -भिन हो जाने दिया ,रोकने का प्रयास भी नहीं किया।धैर्ये और आत्मविश्वास इतना कि ,रणक्षेत्र की निराशा ,भय और आशंकाओं के बीच, बिना विचलित हुए अपने परम प्रिये अर्जुन के माध्यम से भक्ति ,ज्ञान और कर्म योग का अंतर और रहस्य दुनिया को समझा गए । उन्होंने सागर मंथन से प्राप्त मक्खन खाया ही नहीं अपितु समूचे भारत में विस्तारित कर दिया। और अंत में,इन्डियन माय्थोलोजी के धुरंधर राबर्टो क्लासों की पुस्तक के यह अंश जो श्री कृष्ण को माध्यम बना लिखे गए समूचे साहित्य को विश्राम देता मुझे लगता है ,” तब कृष्ण पांच वर्ष के थे। यशोदा कृष्ण को गोदी में लिए बैठी थीं और अपने लाडले को माक्खन खिल रही थीं। कान्हा का सांवला -सलोना चेहरा चाँद सा चमक रहा था। खाते हुए माखन उनकें होंठो से छाती पर टपक रहा था। एक तरफ छिपकर कड़ी दो गोपियाँ इस अदभुत दृश्य का आनंद ले रही थीं। उन्हें तो भगवान के दर्शन हो रहे थे। यदि इसका अर्थ अपने प्रिये के प्रति पूर्ण समर्पण था तो सच में यह वही था। यहाँ भौतिक जगत और ईश्वर परस्पर एक हो रहे थे। यही था सृष्टि का आरम्भ जहां सब कुछ उसमे समाया हुआ था। गोपियों को लग रहा था मानो वे अपने आराध्य से जा मिली हों। ” श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ। —सुरेन्द्र सिंह आर्य (२५/०८ /१३ )

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